उस दिन
और उस दिन
हम दोनों के दिल
नदी में बहती हुई
दो बड़ी बड़ी बूँदें थीं
इतनी पारदर्शी
कि
कुछ भी न दिखाई पड़ता था
उनके भीतर
और उस दिन
हम दोनों के दिल
नदी में बहती हुई
दो बड़ी बड़ी बूँदें थीं
इतनी पारदर्शी
कि
कुछ भी न दिखाई पड़ता था
उनके भीतर
कहीं पर दिन नहीं ढलता , कहीं बस रात होती है ,
न जाने प्यार के मौसम में कैसी बात होती है .
दिवानो की दुआओं को खुदा भी खूब सुनता है
यहाँ पर दिल धड़कता है वहां बरसात होती है
मेरे निर्विकार को लिखने वक्त नही आएगा ;
अपने शोणित की गरिमा से वह लिखा जायेगा
मेरे चिंतन , मेरे प्रमाद
यह सुखद मौन, हा: यह विषाद
अंतस की तुमुल विविधता रे !
यह आलिंगन , या आर्त्तनाद ?
राम नही बसते धरती के मंदिर और शिवालो में
या चन्दन टीका करके बस भोग लगाने वालो में
वे मर्यादा की प्रधानता का प्रतीक हैं , संबल है
उन हृदयों में राम बसें ,जो प्रेम भाव से विह्वल हैं
-आलोक
उजालों की जानिब कहाँ जिन्दगी है
दहकती सुबह ,खौलता आसमाँ है
चलो ढूँढ़ते हैं गमों का बहाना
बहुत देर से रोशनी का समाँ है ।
बहुत चाँदनी जी चुकी हैं निगाहें
कि आँखों में सीलन है,कोहरा घना है
न अब ख्वाब डालो हमारी नसों में
उनींदे समय को जरा जागना है ।
कहीं और ढूँढ़ें चलो आशियाने
फ़लक पर बहुत रंज बिखरे पड़े हैं
कहाँ तक सितारे बुझाते रहोगे
तुम्हारे शहर में हज़ारों पड़े हैं
खड़े आईनों में कई अजनबी थे
हमें होश आया संभलते-संभलते
बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते
-आलोक शंकर
लोग कहते हैं, कि हमने चाहतों में मात खाई
इस कदर लहरों ने अपने प्यार की कश्ती डुबाई
बस जरा सी बात थी ,अपनी समझ में जो न आई
मैं जिसे समझा सफ़र है, तुम उसे समझे लड़ाई
——— 2———-
पीर मेरी रागिनी है, दर्द मेरा साज़ है
खो गये अल्फ़ाज़ मेरे ,गुम बड़ी आवाज़ है
अब न पूछो आज़ शायर क्यों गज़ल कहता नहीं
मय्यतों में गज़ल का होता न कोई रिवाज़ है
———3———
हैं चकित सारे सितारे,हो गया कवि बावला है
आसमाँ पर इन्कलाबों की फ़सल बोने चला है
ऐ खुदा सूरज़ छुपा ले अपने दामन के तले ,
आँख पर उसकी चमकने आज़ एक दीपक ज़ला है।”
———-4———-
चाहतों को कोई आशियां न मिला
मदीने में भी गये, खुदा न मिला
ढूँढ़ते हम रह गये सारे जहान में
एक भी सुकून का दुकाँ न मिला
——–5———–
थी बड़ी ही देर चुप्पी , अब ज़रा आवाज़ हो
अँधेरों के इस शहर में सुबह का आगाज़ हो
कौन कहता है हवा पर पाँव रख सकते नहीं
आसमाँ छूने का ये शायद कोई अंदाज़ हो।
-आलोक शंकर
महफ़िलों की नीयतें बदल गयीं हैं आजकल
महमिलों से आजकल शराब निकलती नहीं
क़ातिलों के कायदे खुदा भी जानता नहीं
जान गई पर मुई हिज़ाब निकलती नहीं
जिन्दगी जवाब चाहती हरेक ख्वाब का
ख्वाब बह गये मगर अज़ाब निकलती नहीं
ख़्वाहिशों के अश्क हैं हज़ार मौत मर रहे
कब्रगाह से मगर चनाब निकलती नहीं
क़ौम कई लुट गये मोहब्बतों के खेल में
क्यों इबादतों से इन्कलाब निकलती नहीं
तेरे इन्तजार में बिगड़ गयी हैं आदतें
रह गयी है उम्र बेहिसाब निकलती नहीं ।
इस क़दर है ज़िन्दगी की लौ यहाँ बुझी-बुझी,
एक भी चराग़ से है आग निकलती नहीं
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