शान्तनु की चिंता
जगती लतिका पर जब नीलोत्पल खिल जाते हैं
लालायित हो कर देव मधूप उतर आते हैं
त्रिगुणा मलयानिल यग्य- धूम विस्त्रित करती है
उद्भिजा लता यह शान्तनु को कृत कृत करती है;
साम्राज्य तमिस्रों का तब घोर विपन्न हुआ था,
जब भरतवंश में यह मानव उत्पन्न हुआ था
इस पुण्य लता का रस सिंचन यह ही कर पाया
श्री किसलय से किल्विष का मर्दन भी कर आया ।
उसी लता पर अमृत तरल लो आज़ पड़ा है,
हुआ आज़ धरणी का कुछ उपकार बड़ा है
सुधा कुक्षि से तेज़ अष्ट वसुओं का आया,
सीपी ने कैसा यह अद्भुत मोती पाया ?
देवव्रती यह तनय मिला है धर्मव्रती को,
और भला क्या रत्न चाहिये इस धरती को ?
नैसर्गिक उपहार दिया है सुरसरिता धारा ने,
आया है गोलोक धरित्री पर कुछ पुण्य कमाने।
दिद्यक्षु चक्षु अब शान्तनु के कुछ त्रिप्त हुए हैं
बुझते दीपक नवल ज्योति पा दीप्त हुए हैं
आज़ भानु अष्टम उग आया इस अम्बर में
भय अभान उत्पन्न हुआ पर घोर निडर में
क्या प्रदीप यह और प्रज्ज्वलित हो पायेगा,
या झंझावातों में यह भी खो जायेगा ?
शंका से तो मनुज़ सहमकर ही जीता है
जला दूध का छाछ फूँककर ही पीता है।
चिंता नहीं हमारा कुछ भी ले पाती है,
अन्तर में पीड़ा दुस्सह तो दे जाती है;
जिस डाली ने सुरभित सातों कलियाँ खो दीं
अष्टम की कुछ चिंता तो माली को होगी
वृंत बचाने को कलियाँ सब खोता आया,
सुरभि अंश से वंचित अबतक होता आया।
नयनाञ्जन तज़ और चाहिये क्या काने को?
एक कुसुम तो हो उपवन को महकाने को।
पुत्र बिना भव मुक्ति भला किसने पायी है?
चिन्ता एक तनय की सचमुच दुखदायी है।
आज़ मुझे कुछ ठोस हृदय में धरना होगा
पाने को कुछ त्याग कहीं तो करना होगा।
यही अटल संकल्प नृपति के मन में भी था,
माली में था और आज़ उपवन में भी था।